Friday, January 26, 2018

कभी कभी

कभी कभी
मेरे दिल में ख़याल आता है
कि अगर साहिर के दरीचों में
अमृता का अक्स मयस्सर होता
तो फाल्गुन का चाँद होता

उसके नूर से साहिर की कलम बाँसुरी हो जाती
और उसके रंगों से साहिर पन्नों की तासीर
धनक
जो अल्फ़ाज रवाँ होते वो हदीस होते
जो काफिए जवाँ होते
वो इबादत
और अक्सर
साहिर की कशी सिगरेट की ठूँठों पर
अमृता के लबों की शबनम
शहद बन जाती

ना चाय के कप धुलते
ना चादरों की सिलवटें हटती
ना इश्क़ के इत्र लबरेज हवाएँ साँस लेती

साहिर के कलाम अमृता हो जाते
और अमृता की नज़में साहिल

ना कोई अज़नबी रहता
ना किसी को इन्तजार

मगर
ये हो ना सका
और अब ये आलम है
कि साहिर के जिक्र का रंग अमृता है
और अमृता के बातों का साहिल
साहिर

ना मिलते हैं दोनों
ना ज़ुदा होते हैं

कभी कभी
मेरे दिल में ख़याल आता है

Sunday, May 21, 2017

मेरे घर चले आना

जब जाड़े कोहरे का स्वेटर पहने निकालेंगे
और अलसाया सूरज अपनी आँखें मलता हुआ सुबह देर से जागेगा

जब गन्ने की फसल कट चुकी होगी
और गुड़ की मीठी मीठी खुशबू से तराई महकेगी

जब कोसी सूख जाएगी
और रामगंगा सिमट कर उसका इंतजार करेगी

जब पत्तथर चट्टा की मोड़ पर अमरूदों का उर्स लगेगा
और टाँडा के जंगल टीक के पत्तों से पट जाएंगे

जब दोगाँव मे रोड़ की सीलन सूखने से इंकार कर देगी
और बल्दियाखान ठिठुर ठिठुर कर नैनीताल को हल्द्वानी बहते देखेगा

जब ड़ाँठ में सन्नाटा बैठ कर ताश खेलेगा
और चाईनापीक का सफेद झंडा बर्फ का इंतजार करेगा

तुम मेरे घर चले आना
हम धूप में बैठ कर नींबू सानेंगे और वसंत की बातें करेंगे

@ ना शोना के पैराहन , ना मीठा के पैर

Tuesday, May 16, 2017

ये शोना के पैर

बैसाखी से पूछे
ये शोना के पैर
कौन जनम की निभा रही है...
तू ये मुझ से बैर

काहे आकर
मुझसे
तू
मान मेरा ले जाती है
मेरी कोशिश
मेरी शिद्दत
पीछे ही रह जाती है 
तुझ सा निर्मोही ना देखा
अपना हो या गैर
कौन जनम की निभा रही है...
तू ये मुझ से बैर

तेरे काँधें
पर
चलकर में
मरघट को ना जाऊँ
रगड़ रगड़ भी जीना हो तो
मैं ना शीश झुकाऊँ
नहीं है करनी तेरे संग संग
मुझको जन्नत की सैर
कौन जनम की निभा रही है...
तू ये मुझ से बैर

बैसाखी से पूछे
ये शोना के पैर
कौन जनम की निभा रही है...
तू ये मुझ से बैर

@ ना शोना के पैराहन , ना मीठा के पैर

तू बेबाक फ़कीर

चल शोना चल रमते जईये
चल गंगाा के तीर
तेरा जिस्म जियारत तेरी
तू बेबाक फ़कीर

तेरे पैर तेरे पैराहन
मन तेरा ये पानी
गंगा मे ले एैसी डुबकी
तन होए गुरबानी
शहद जुबाँ से एैसा रच दे
जैसा ठंडी खीर
तेरा जिस्म जियारत तेरी
तू बेबाक फ़कीर

तेरी साँस से लपटे जैसे
मोह के पाँच भुजंग
काट बेड़ियाँ ओड़ रिहाई
बन जा अाज निहंग
सब सिल जाए सब मिल जाए
किस की एैसी तकदीर
तेरा जिस्म जियारत तेरी
तू बेबाक फ़कीर

चल शोना चल रमते जईये
चल गंगाा के तीर
तेरा जिस्म जियारत तेरी
तू बेबाक फ़कीर

@ ना शोना के पैराहन , ना मीठा के पैर

Sunday, May 14, 2017

माँ के लिए

कहाँ साहब
माँ पर भी कोई लिख सकता है क्या
सूरज को दीप दिखाना मुमकिन नहीं

हाँ
यादें पिरोई जा सकती हैं
उन दिनों की जब चालिस वाट के लट्टू के नीचे
रात भर सिलाइयों से लड़ कर
वो जाडों के लिए
ऊनी मोजे बुना करती थी

उन दिनों की यादें
जब बुखार में तपते बदन की दवा
बस माँ का आँचल हुआ करता था
और बुखार उतरने तक वो सिरहाने पर बैठ कर
बाल सहलाया करती थी

उन दिनों की यादें
जब रुपये की पाँच टाफी आती थी
और माँ रोज लाया करती थी
मैने उन्हें कभी लिपस्टिक लगाते नहीं देखा

उन दिनों की
जब वो वार त्योहार में
नानी की दी हुई साड़ियाँ पहनती थी
और हम नए कपड़े

इन बातों के लिए कोई " थैक यू " कभी नहीं बना

कहाँ साहब
माँ पर भी कोई लिख सकता है क्या
सूरज को दीप दिखाना मुमकिन नहीं

Wednesday, May 10, 2017

सिद्धार्थ गौतम के नाम

सिद्धार्थ गौतम
तुम अगर यशोधरा का हाथ पकड़ कर
उसकी आँखें में झाँक लेते
तो शायद तुम्हें बौद्धत्व प्राप्त करने में
बारह वर्ष नहीं लगते

कितना साहस रहा होगा उन में
कितना निस्वार्थ
जब तुम को गोपा ने बोला होगा
सखा तुम सत्य की तलाश में जाओ
मैं सब संभाल लुंगी
और तुम त्याग जंगल में ढूँढ़ते रहे

कितना संयाम
कितना धैर्य रहा होगा उन में
जब तुमहारे केशों में अंगुलियाँ फिराते गोपा ने बोला होगा
आर्य तुम घर की चिंता ना करना
माँ , पिताजी और राहुल की जिम्मेदारी मेरी
में उनकी वो हर उम्मीद  पूरी करूंगी
जो तुमसे है
और तुम करूणा रास्तों में तलाशते

कितनी करूणा रही होगी उन में
कि तुम्हारी कशमकश जान कर
देवी यशोधरा ने जीवन भर तुम्हारे जीवित होते
वैधव का वरण किया
और तुम विमोह साधुओं में तलाशते रहे

कौन सा महाञान मिला तुम को
बरगद के नीचे
जो उस रात नहीं मिला
जब यशोधरा ने अपना हर अधिकार
तुम्हारे चरणों में अर्पण कर
तुम्हें मुक्त कर दिया सांसारिक बंधनों से
तुम निर्वाण आसनों में तलाशते रहे

जीवन दुखों से परिपूर्ण हैं
दुख की जनक कामनाएँ हैं
कामनाओं को त्याग कर ही निर्वाण प्राप्ति संभव है

ये सब तुमको
उस क्षण नहीं नजर आया
जब देवी यशोधरा ने तुमको विदा किया
बारह वर्ष लग गए पेड़ के नीचे
वहीं पंहुचने को जहाँ से चले थे

सिद्धार्थ गौतम
तुम अगर यशोधरा का हाथ पकड़ कर
उसकी आँखें में झाँक लेते
तो शायद तुम्हें बौद्धत्व प्राप्त करने में
बारह वर्ष नहीं लगते

Monday, May 01, 2017

बड़ी जलील सी जिद है ये जिंदगी

बहुत मुश्किल होती है साँस लेने में आजकल
जैसे छाती पर दुनिया का वजन रखा हो
और फेफड़ों में पानी भर गया हो
दम धुटता चला जाता है जीने कि जद्दोजहद में
और कर्ज मे डूबी धड़कने टूटने के नाम ही नहीं लेती

ना जाने माथे पर क्या लिखा लाया हूँ
की रात करवटों की लौंडी बन गई है
दिन जरूरतों का दलाल
और जब बाजार लगता है ना तो सब नीलाम हो जाता है 
गुरूर ,गैरत, सपने , साथ सब कुछ
पर मेरे हाथ तो हर बार वही खोटे सिक्के ऩजर होते हैं
जो ना बजते हैं
जो ना सजते हैं

बड़ी जलील सी जिद है ये जिंदगी

Friday, April 28, 2017

बाँम्बियाँ

मेरी जिस्म में कई जगह
दीमकों नें बाम्बियाँ बना ली हैं
और धीरे धीरे वो मुझे कुतर रही हैं

कल ही तो अभी नई उम्मीद टाँगी थी
हैसलों की टेक पर
पर आज वहाँ पर सिर्फ बुरादा है
बुरादा जो दीमकों के दांतों से शायद झिर गया
वरना दीमकें कुछ भी कहाँ छोड़ती हैं

हर दिन खुरचता हूँ
मैं दीमकों के घर
शराब डाल कर आग भी लगाता हूँ
मगर खुबह तक फिर लौट अाती हैं
वो रेंगती हुई लकीरें
जो ना जाने कब मेरे हाथों से फिसल गईं

अब तो जिस्म भी जवाब देने लगा है
और शरीर पर चर्बी के कुकुरमुत्तते उग आए हैं
आँखों के नीचे काई जम गई है
और कलमों पर फंफूद
कई बार तो यूँ भी लगता है कि
सब कुछ भरभराकर ढह जाएगा

मगर में एक और फिर
एक बार फिर
बार बार फिर
जल जल कर
वो बाँबिया जलाता हूँ

सच
तुम्हारा यकीन कितना सच था
मेरे जाने के बाद तुम जिंदगी निभा लोगे

Wednesday, April 26, 2017

बंंजारा

मैं बंजारा
मेरे पैर भंवर हैं
मेरी रूह का रंग रवानी
मन में मोती कई सीप हैं
देह है मेरी पानी

मैं बंजारा
नील गगन पर
सूरज से पेंच लड़ाऊँ
लंगर फेंकूँ चंदा पर
तारों को फूँक बुझाऊँ

मैं बंजारा
चिलम जलाकर
कश में खिंचूँ रात
जलती बुझती बुझती जलती
चार बल्सित दो हाथ

मैं बंजारा
बादल छक लूँ
बारिश को मार ड़कार
रेंग रेंग के गिरगिट के संग
कर लूँ सहरा पार

मैं बंजारा
खारा सागर
कोहलू में पिरवाऊँ
नमक नमक पलकों से चुगकर
मिठा पाक बनाऊँ

मैं बंजारा
आग में जलकर
कुंदन में बन जाऊँ
सोने की चमचम चार चमक को
छप्पर पर मढ़वाऊँ

मैं बंजारा
रूह रेत कर
रेत रेत में कर दूँ
कुछ सहरा को आचमान दूँ
कुछ आसमान में भर दूँ

पुच्छल तारा

मेरे पैरों को पता हैं
पुच्छल तारों का दर्द
अक्सर वो भी भंवरों में उलझ जाते हैं
और लम्बी लम्बी पूँछ सम्भाले
मुन्जमिद उम्मीद ले कर
सूरज के आस पास जलेबियाँ बनाते हैं

कभी चंदा आँखें दिख़ाता हैं
कभी धरती भौं तरेरती है
कभी मंगल काट खाने को दौड़ती है
मगर ये कोई नहीं बताता
कि कैसे सूरज से मिला जाए

वो कहते हैं जल जाएगे
मैं कहता हूँ
जमे रहने से बेहतर होगा