Friday, April 28, 2017

बाँम्बियाँ

मेरी जिस्म में कई जगह
दीमकों नें बाम्बियाँ बना ली हैं
और धीरे धीरे वो मुझे कुतर रही हैं

कल ही तो अभी नई उम्मीद टाँगी थी
हैसलों की टेक पर
पर आज वहाँ पर सिर्फ बुरादा है
बुरादा जो दीमकों के दांतों से शायद झिर गया
वरना दीमकें कुछ भी कहाँ छोड़ती हैं

हर दिन खुरचता हूँ
मैं दीमकों के घर
शराब डाल कर आग भी लगाता हूँ
मगर खुबह तक फिर लौट अाती हैं
वो रेंगती हुई लकीरें
जो ना जाने कब मेरे हाथों से फिसल गईं

अब तो जिस्म भी जवाब देने लगा है
और शरीर पर चर्बी के कुकुरमुत्तते उग आए हैं
आँखों के नीचे काई जम गई है
और कलमों पर फंफूद
कई बार तो यूँ भी लगता है कि
सब कुछ भरभराकर ढह जाएगा

मगर में एक और फिर
एक बार फिर
बार बार फिर
जल जल कर
वो बाँबिया जलाता हूँ

सच
तुम्हारा यकीन कितना सच था
मेरे जाने के बाद तुम जिंदगी निभा लोगे

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