कहाँ साहब
माँ पर भी कोई लिख सकता है क्या
सूरज को दीप दिखाना मुमकिन नहीं
हाँ
यादें पिरोई जा सकती हैं
उन दिनों की जब चालिस वाट के लट्टू के नीचे
रात भर सिलाइयों से लड़ कर
वो जाडों के लिए
ऊनी मोजे बुना करती थी
उन दिनों की यादें
जब बुखार में तपते बदन की दवा
बस माँ का आँचल हुआ करता था
और बुखार उतरने तक वो सिरहाने पर बैठ कर
बाल सहलाया करती थी
उन दिनों की यादें
जब रुपये की पाँच टाफी आती थी
और माँ रोज लाया करती थी
मैने उन्हें कभी लिपस्टिक लगाते नहीं देखा
उन दिनों की
जब वो वार त्योहार में
नानी की दी हुई साड़ियाँ पहनती थी
और हम नए कपड़े
इन बातों के लिए कोई " थैक यू " कभी नहीं बना
कहाँ साहब
माँ पर भी कोई लिख सकता है क्या
सूरज को दीप दिखाना मुमकिन नहीं
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