कभी कभी
मेरे दिल में ख़याल आता है
कि अगर साहिर के दरीचों में
अमृता का अक्स मयस्सर होता
तो फाल्गुन का चाँद होता
उसके नूर से साहिर की कलम बाँसुरी हो जाती
और उसके रंगों से साहिर पन्नों की तासीर
धनक
जो अल्फ़ाज रवाँ होते वो हदीस होते
जो काफिए जवाँ होते
वो इबादत
और अक्सर
साहिर की कशी सिगरेट की ठूँठों पर
अमृता के लबों की शबनम
शहद बन जाती
ना चाय के कप धुलते
ना चादरों की सिलवटें हटती
ना इश्क़ के इत्र लबरेज हवाएँ साँस लेती
साहिर के कलाम अमृता हो जाते
और अमृता की नज़में साहिल
ना कोई अज़नबी रहता
ना किसी को इन्तजार
मगर
ये हो ना सका
और अब ये आलम है
कि साहिर के जिक्र का रंग अमृता है
और अमृता के बातों का साहिल
साहिर
ना मिलते हैं दोनों
ना ज़ुदा होते हैं
कभी कभी
मेरे दिल में ख़याल आता है
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