कल रात पहाड़ों पर फिर से बरसात हुई
और स्वेटर निकल आये
मौसम बदलते देर नहीं लगती
कल ही तो
दोपहर में जब आँगन सुलग रहा था
तो
गर्म कपड़ों को तह लगाती
अम्मा बोली थी
कि कलयुग में फाल्गुन को ग्रहण लग गया है
अब तो राम लला के पालने पर भी पंखा झलना पड़ेगा
ना जाने कौशल्या माँ इतनी गर्मी में प्रसव वेदना सहेंगी
जो भी हो हर कोई श्री राम नहीं जनता
कपूर की मुट्ठी भर गोलियां
लोहे के संदूक के पेट में डाल कर
वो बोली
आग लगे इन कीड़ों को
मेरा बुना हुआ मफ़लर खा गए
आँखें फोड़ कर बुना था
दो नम्बर की सलाई से
अब तो उल्टे फंदे भी नहीं उठते
जब संदूक के पाट बंद हुए
उन के चेहरे पर विजयी मुसकान थी
बोली
चल खतड़ुए तक तो इनका मोह नहीं रहा
आराम से मर सकूंगी
और मेरी चिता पर वो धानी स्वेटर धो कर चढ़ाना
कपूर की बास सहन नहीं होती
पर मोह से मुक्ती कहाँ
सुबह ठंड मे कंपकपाते संदूक को खोला
धनी स्वेटर निकाल कर बोली
जीते जी पहन लेती हूँ
मरने के बाद किसने देखा है
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