जो
हथेली पर ना लिखीं हों,
उन मुहब्बतों का नाम कैसा
बिना टिकट के सफर की तरह
जो ये सोचते सोचते
कश्मकश में ही गुजर जाता है
कि पहले स्टेशन आएगा
या टिकट बाबू
पीछे छूटती वक्त
और आघे खिंचती उम्मीद
के बीच
बगल की पटरी से गुजराती तेज ट्रेन
अक्सर चौका देती है
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