कहाँ का इश़्क साहब
रंजिशें थी
नहीं तो कौन पीठ पर खंजर उतार के कहता है
मुझे मालूम है
कि तुम जी लोगो
मेरी जिंदगी ना हुई
मशकबीन हो गई
बगल में दबाओ
और सुर में बजाओ
जब तक मल्हार बजे
तब तक हवा का पींगे भरो
और जब विहाग बजे
तो पटक ड़ालो
और उँगलियाँ उठाओ ईख के इमान पर
कि कितने छेद हैं इसमें
कहाँ कहाँ उँगलियाँ रक्खूँ
तकाज़ा है
कि पीठ को यकीन का काबा बना दिया
और उतर जाने दिया खंजर
रूह तक गहरा
सच कहूँ
तो तुम्हारे चेहरे पर जो इबारत चस्प है ना
एक दिन काफिर बन कर फ़ितना हो जाएगी
मेरा क्या है
दफ्न हो कर भी
साँस ले लुंगा
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