Tuesday, August 19, 2014

आवारा


एक तिश्नगी
एक ज़ार है
मेरी रूह के हर तार में
हूँ फिर रहा
कब से ना जाने फिर रहा
हश्र के बाज़ार में

विस्ल
हुआ नीलम मुफ़लिस
फ़िराक
तो भी बिक गया
कुफ्र का
फानूस आ कर
क़दमों में मेरे
टिक गया

मस्जिद से हुआ
बेदखल
रुस्वा
मैखाने से
अब क्या मुझे लेना कहो
रक़ाबत भरे जमाने से

है
फिरन अब हमनफ़स
ना मंज़िल
ना रास्ता
ना दीन से उम्मीद कोई
ना दुनिया से कोई वास्ता
है कदम मदहोश
गफलत में दोबारा
क्या फ़र्क़ पढता है
जो कहते हो
आवारा

No comments:

Post a Comment