Sunday, April 14, 2013

डोटियाल


ना जाने 
कहाँ गए 
वो 
हिमालय के बेटे 
जो तल्लीताल डांठ पर 
चढ़ती बसों के साथ 
दौड़ा करते थे 
चलती बस की  
अधखुली खिडकियों से 
अपने टोकन 
पिरोया करते थे 
और नैनीताल की रगों का   
बोझ ढ़ोया करते थे 

हिमालय के वो बेटे 
जो पीठ पर 
लोहे का बड़ा बक्सा लादे 
किसी जादुई लय के साथ 
छोटे छोटे क़दमों से 
खाड़ी चढाई चढ़ जाते थे
और अपर चीन माल 
से सटे घरों पर भी 
पहुँच कर मुस्कुराते थे

वो हिमालय के बेटे 
जो सुबह की पहली धुप से 
बोझ उठाया करते थे
फिर शेरवूड हो या बिडला हो 
हंस कर चढ़ जाया करते थे 
चाहे धूप हो या बरसात 
सुबह हो या रात 
सामन सकुशल पहुँचाया करते थे 
और रात ढले रक्षी के नशे में 
बाँसुरी बजाय करते थे 

ना जाने 
कहाँ चले गए वो 
हिमालय के बेटे 

2 comments:

  1. बहुत ही मर्मस्पर्शी विचार ....ये डोटियाल नैनीताल की जिंदगी का एक अहम् हिस्सा थे जो धीरे धीरे नैनीताल छोड़ कर जा रहे हैं...

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  2. नैनीताल के डांट (बस स्टेशन ) का दृश्य आँखों में उतर आया,बहुत सुंदर रचना

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