ना जाने
कहाँ गए
वो
हिमालय के बेटे
जो तल्लीताल डांठ पर
चढ़ती बसों के साथ
दौड़ा करते थे
चलती बस की
अधखुली खिडकियों से
अपने टोकन
पिरोया करते थे
और नैनीताल की रगों का
बोझ ढ़ोया करते थे
हिमालय के वो बेटे
जो पीठ पर
लोहे का बड़ा बक्सा लादे
किसी जादुई लय के साथ
छोटे छोटे क़दमों से
खाड़ी चढाई चढ़ जाते थे
और अपर चीन माल
और अपर चीन माल
से सटे घरों पर भी
पहुँच कर मुस्कुराते थे
वो हिमालय के बेटे
जो सुबह की पहली धुप से
बोझ उठाया करते थे
फिर शेरवूड हो या बिडला हो
हंस कर चढ़ जाया करते थे
चाहे धूप हो या बरसात
सुबह हो या रात
सामन सकुशल पहुँचाया करते थे
और रात ढले रक्षी के नशे में
बाँसुरी बजाय करते थे
ना जाने
कहाँ चले गए वो
हिमालय के बेटे
बहुत ही मर्मस्पर्शी विचार ....ये डोटियाल नैनीताल की जिंदगी का एक अहम् हिस्सा थे जो धीरे धीरे नैनीताल छोड़ कर जा रहे हैं...
ReplyDeleteनैनीताल के डांट (बस स्टेशन ) का दृश्य आँखों में उतर आया,बहुत सुंदर रचना
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