Tuesday, April 02, 2013

शायद


शायद 
कुछ सांसें
बांकी है 
इस अपाहिज रिश्ते में 
जो 
उम्मीद की बैसाखी पर 
अब भी 
लड़ -खड़ा रहा है 

ये 
ज़िद है 
या पागलपन 
पता नहीं 
मगर 
जब भी डगमगाता है 
फिर से खड़ा हो जाता है 
बैसाखियों को भींचे 
आसमान से ऑंखें मिलाये 

शायद 
ये आस 
ये उम्मीद 
ये दीवानापन 
नब्जों में रवानी बन कर दौड़ता है 
वरना 
बैसाखियों पर 
लाशें कहाँ चलती हैं 

No comments:

Post a Comment