शायद
कुछ सांसें
बांकी है
इस अपाहिज रिश्ते में
जो
उम्मीद की बैसाखी पर
अब भी
लड़ -खड़ा रहा है
ये
ज़िद है
या पागलपन
पता नहीं
मगर
जब भी डगमगाता है
फिर से खड़ा हो जाता है
बैसाखियों को भींचे
आसमान से ऑंखें मिलाये
शायद
ये आस
ये उम्मीद
ये दीवानापन
नब्जों में रवानी बन कर दौड़ता है
वरना
बैसाखियों पर
लाशें कहाँ चलती हैं
No comments:
Post a Comment