Tuesday, June 19, 2012

मैं... और... तुम

मैं 
तुम से 
न कोई गिला करूँगा 
न शिकवा 
न शिकायत कोई 

मैं 
तुम को 
न कोई नसीहत दूंगा 
न हिदयात 
न सलाह कोई 

तुम ...तुम हो 
और 
मैं ...मैं हूँ 
शायद 
यही फर्क है 
और फासला भी 

ये फासला कम होगा 
न फर्क 
तुम 
मुझे देख... मुस्कुराना 
मैं तुम्हें देख ...मुस्कुराउंगा 
कभी बाहें अपनी 
कभी गर्दन हिलाऊंगा 

दरख्तों की 
किस्मत में
हिज्र कहाँ होता है 





1 comment:

  1. respecting differneces and yet being one..liked it,skand

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