जब आँख खुली
सुबह
तो ये ख्याल आया
लिपट गया है
मुझसे
कितना तेरा साया
नजरें मिले
खुद से
मैं
फिर से डगमगाया
लिपट गया है
मुझसे
कितना तेरा साया
ये सोचता रहा
मैं
कि कैसे तुझे भुलाऊँ
जज्बात के भंवर को
कैसे
मैं डुबाऊं
कोशिश
जो भी कि है मैंने
वही नाकाम होती है
इस जद्दोजहद में
यूँ ही
सुबह- शाम होती है
कौन सा नुस्खा है वो
जो
मैंने नहीं आजमाया
लिपट गया है
मुझसे
कितना तेरा साया
मुमकिन नहीं है लगता
तेरे साये से दूर जाना
आसाँ ही होगा
शायद
खुद को भूल जाना
तू ही बता
मुझे
कि
अब कहाँ मैं जाऊं
कोशिश करूँ जो चाहे
फिर लौट के ना आऊं
जहाँ
धूप ना निकले
हो जहाँ ना छाया
जहाँ
मैं सिमट जाऊं
बन के तेरा साया
जब आँख खुली
सुबह
तो ये ख्याल आया
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