देखा तुमने!
आँगन में लगा वो पेड़ सूख रहा है;
जिसे हमने बचपन से बड़ी उम्मीद से सींचा था II
वो बवाली गौरैया,
जो हमारी हमजोली थी,
वो भी आज कल, कहीं नज़र नहीं आती I
उसके चुगने के लिए डाले चावल के दाने,
देहरी पर पड़े पड़े मूँह चिढाते हैं II
वो नटखट गिलहरी,
जो आँखों में सुकून लिए,
सांझ - सवेरे रोशनदान से झाँका करती थी,
न जाने कहाँ छुपी बैठी है II
वो जगदीश्वर चूहे,
जो जी का जंजाल थे;
वो भी नारदाद हैं II
और कव्वे,
जो बड़ी शिद्दत से साबुन चुराते थे ;
अब किताबों में ही दिखते हैं II
गहरी मिटटी खोदो
तो भी केंच्वे नहीं मिलते !
अब तो उनकी कैंचुली भी खाख हो चुकी हैं ...
धुप फांकते - फांकते
संजीवनी दूब की जीवट..
भी राख हो चुकी है II
ऐसी है गर्दिश फैली,
कि मक्खियाँ भी बीमार हो रही हैं I
और दीवारों पर रेंगती छिपकलियाँ,
भूख से हो कर शापित...
कुपोषण का शिकार हो रही हैं !!
चारों तरफ पसरा सन्नाटा..
और मनहूसियत मुस्ताद है ;
घर के आहाते को लगता है ...
हो गयी उम्र कैद है !!
क्या ?
ऐसी कोई कचहरी है !
जहाँ चले मुकद्दमा क़त्ल का :-
इस खुदगर्ज पीढ़ी पर...
आने वाली नस्ल का !!
जो
कल से छीन कर
आज जी रही है ...
और आने वाली नस्लों की
उम्मीद पी रही है II
ऐसे ही अगर,
आज..
कुछ और व्यूह रचेगा...
शायद ...
कल के लिए कुछ भी नहीं बचेगा II
इस से पहली रात ढले ,
थोड़ी सी ईमानदारी
अब तो कल के साथ करो...
धरा की धरोहर बचाने की,
कुछ तो शुरुआत करो...
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