कितनी ख़ामोशी है
लगता है कि कोई तूफान बुन रहा है
कुछ कहता नहीं है वो किसी से
बस सब कि दलीलें सुन रहा है
जिरह जारी है इशारों इशारों में
वक्त ही गवाह है , वक्त ही वकील
न जाने वो कौन से सबूत हैं
जो बनेंगे ताबुत कि कील
लगता है जैसे कट गयी
अस्तित्व की पतवार है
सोचा ना था कि चुप में भी
इतनी सटीक धार है
दिन निकल रहे है और रात ढल रही है
ये उम्र भी अब तो कच्चा निगल रही है
कभी कभी कुछ यूँ भी रज़ा होता है
रुका हुआ फैसला भी तो सजा होता है
ruke hue faisle zyada sazaa dete hain....aksar!!
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