Friday, March 02, 2012

कभी कभी कुछ यूँ भी रज़ा होता है


कितनी ख़ामोशी है 
लगता है कि कोई तूफान बुन रहा है 
कुछ कहता नहीं है वो किसी से 
बस सब कि दलीलें सुन रहा है 
जिरह जारी है इशारों इशारों में
वक्त ही गवाह है , वक्त ही वकील 
जाने वो कौन से सबूत हैं 
जो बनेंगे ताबुत कि कील 

लगता है जैसे कट गयी 
अस्तित्व की पतवार है 
सोचा ना था कि चुप में भी 
इतनी सटीक धार है 
दिन निकल रहे है और रात ढल रही है 
ये उम्र भी अब तो कच्चा निगल रही है 
कभी कभी कुछ यूँ भी रज़ा होता है 
रुका हुआ फैसला भी तो सजा होता है 

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