कुछ
कहो
...या
ना कहो
ये ऑंखें बोलती हैं
कुछ
राज़ तो हैं
इनमें गहरें
लाख छुपाओ जिनको तुम
मगर
... ये खोलती है
कुछ
कहो
...या
ना कहो
ये ऑंखें बोलती हैं
कुछ
सपने हैं
उमीदें हैं कुछ
ये जिनकी राह टटोलती हैं
हसरतों के
आसमान में
ये
आशाओं के पर खोलती हैं
कुछ
कहो
...या
ना कहो
ये ऑंखें बोलती हैं
कुछ
शाम के गहरें सायें हैं
जो लम्बे होते आयें हैं
पलकों की देहलीजों पर तुमने
जिनकें पहरें बिठाएं हैं
कोशिश तो की
है तुमने
फिर भी
उम्मीदें डोलती हैं
कुछ
कहो
...या
ना कहो
ये ऑंखें बोलती हैं
बहुत ही सुन्दर ... सुकोमल... और सच की अभिव्यक्ति करती खूबसूरत कविता..
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