Saturday, November 05, 2011

शायद कल सुबह सूरज का जमीर जाग जाये


चुपचाप, नंगे पैर, दबे पांव 
पतझड़ से डंसी जमीन पर चलकर सर्दी 
न जाने कब आकर मेरे आँगन में बैठ गयी  
पता ही नहीं चला ,
बरसातें क्या हुई कि दिन सिकुड़ गए
और रात का अँधेरा पांच पहर तक पसर गया  
रही सही कसार कोहरे ने पूरी कर दी 
कोट की आस्तीनों से फिसल कर ठण्ड सिने को जकड रही है  
मफलर से लिपटी है गर्दन फिर भी अकड़ रही है 
उँगलियों को शायद पला काट रहा है 
धिरे- धिरे हथेलियों से गर्मी चाट रहा है 
काम चोर अंगेठी बगले झांक रही है 
धुवाँ उगल रही है और कोयला फाँक रही है 
में फूकनी से उसमें जान डाल रहा हूँ 
अब जली की तब जली ... ग़लतफ़हमी पाल रहा हूँ 
उम्मीद तो है मुझे कि आग में जला लूँगा 
आज रात तो सर्दी से पीछा में छुड़ा लूँगा 
शायद कल सुबह सूरज का जमीर जाग जाये 
दिन भर धुप खिले और ठण्ड भाग जाये 

1 comment:

  1. शायद कल सुबह सूरज का जमीर जाग जाये
    दिन भर धुप खिले और ठण्ड भाग जाये ...

    agle char mahin yahi kavita padhi jayegi!!

    bahut badhiya varnan!!

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