Wednesday, November 02, 2011

जब सुबह का सूरज मेरे घर में झांकता हैं

जब सुबह का सूरज मेरे घर में झांकता हैं 

उम्मीद के कितने कतरे कोनों में टंगता हैं 

माध्यम से तपिश से जब नीद पिघलती हैं 

फिर नए होंसलों की एक नदी में ढलती हैं 

सूखे पत्ते वो कल के फिर से हरे हो जाते हैं


ठंडी हवा के झोंकों में वो आशा सहलाते हैं

नया दिन और नयी बात,कोशिस जगती है 

सूरज की थापों पर फिर जिंदगी भागती है

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