Sunday, October 23, 2011

चुप्पी





न जाने तुमें ये चुप्पी क्योँ ओड़ ली है
ख़ामोशी की तरफ रोशनी मोड़ ली है
कुछ तो है कि कोई आवाज नहीं आती
कड़ी धूप है सन्नाटों कि चिलमिलाती
कुछ तो बोलो, कोई तो बात करो तुम
वक्त कि बयार में कहाँ हो गए हो गुम
थोडा सा है धुवां,थोड़ी सी छाई धुंध
है सूरज कि रोशनी भी थोड़ी हुई कुंद
दिनों पर बोझ है और रातों में भार है
मौसम का हर पहलू भी तो गिरफ्तार है
न पतझर कि है परवाह न वसंत की आस है
बची न भूख है जेठ की न सावन की प्यास है
क्योँ ऑंखें है भरी भरी,साँसें क्यूँ बदहवास है
देखो तुम जो नहीं तो जिंदगी कितनी उदास है

4 comments:

  1. न पतझर कि है परवाह न वसंत की आस है

    बची न भूख है जेठ की न सावन की प्यास है ....beautiful.

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  2. बहुत सुंदर ..स्कन्द ..

    चुप हूँ सिर्फ इसलिए कि बन जाए न तमाशा
    और वह यह समझते है कि मुझे गिला कुछ भी नहीं

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  3. कुछ तो है कि कोई आवाज नहीं आती...

    बहुत खूब..!!

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