Tuesday, August 02, 2011

...सबक


कल सारी रात जाग कर मैं चूहा भागता रहा

और सार दिन उंघते हूए कट गया

आधी बाँह की कमीज पहन कर , ओडोमोस लगाए

मैं मच्छरों को छकाता रहा

दिन ही कुछ ऐसा था

सुबह की चाय में चीनी कम थी

और अंडे की भुर्जी में नमक ज्यादा

डबलरोटी शायद बासी ही थी

की हाथ में लेते ही चूर चूर हो गयी

और मांगी तो मिली सुखी रोटीयाँ

रोटीयाँ घीं लगा कर ही अच्छी लगती हैं

और परांठों की बात ही और है

अब सीडियाँ चढ़ते सांस फूलने लगती है

तो क्या

आँखिर बुढ़ापे से कब तक मूहँ छिपाओगे

ऑफिस देर से पहुँचा,

पर कोई जायज वजह तो होती

बस चाबी कार के अन्दर छोड कर दरवाजा बंद कर दिया

शाम तक फाइलों के बोझ ने अधमरा कर दिया

और घर को लौटते हुए कबाब की खुशबू ने घेर लिया

जब तरावट गले के नीचे उतरी तो याद आया की आज मंगलवार है

पीर बाबा की मजार पर कान पकड़ कर माफ़ी मांगी

सोचा की अब हनुमानजी गुस्सा नहीं करेंगे

वैसे भी इफ्तारी का वक्त था

किस फरिस्ते के पास हिसाब किताब का वक्त होगा

तभी मेरे आँखों के सामने सामने एक मोटर साइकिल सवर रपट गया

उसको सहारा देकर उठाया और मरहम पट्टी के लिए ले गया

अब ये ही बचा था की उसका खून मेरी कमीज पर लग गया

और उसका नाम उस्मान था

घर पंहुचा ही था की बिजली चली गयी

और मोमबत्ती ढूँढने के चक्कर में अपना भी माथा फोड़ लिया

और जब तक बिजली आए, सर से टपकता खून कमीज तक पहुँच गया

हाथ में ले कर कमीज अपनी सोच रहा था में गहरा

अब कौन सा खून मेरा था , और कौन सा खून उस्मान का

कौन खून था हिन्दू का , कौन मुसलमान का

समझा तो बस ये जाना

कोई फर्क नहीं , कोई भेद नहीं

बस है ये इंसान का

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