कितनी जालिम हैं ये लकीरें ,जो हमकों बंटती है
जड़ें तो अपनी साझी हैं ,टुकड़ों मैं काटती हैं
आँगन अपना एक है ,हम हैं तो हमसाये
हैं करीब ..फिर भी ,हैं तुम ...हम ... पराये
मेरी होने पर तुम कितनी सवाल करते हो
की दिन रात बार मेरे ख्याल करते हो
मेरी साँसें भी तुमको रकीब लगतीं हैं
रिश्ता है कोई जो तुमको अजीब लगतीं हैं
मेरे सजदे में भी तुम्हें कुफ्र नज़र आता है
माझी लहर बन जो लौट कर के आता है
आंखिर कब तक हम यूं नफरतें उठाएंगे
चुलेह की आग से अपनी घर जलाएंगे
में अक्स हूँ तेरा , तो रूह है मेरी
में सांस हूँ तेरे, तो जिंदगी मेरी
है लहू का एक तेरा बहे या मेरा
चल रात को रुक्सत करें , बाँट ले सवेरा
छोड़ कर अपना गुरूर , आ बदलें तकदीरें
कब तक यूं बाँध पाएंगी , हम को ये लकीरें
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