Monday, July 04, 2011

अब भी किसी संदूक में बंद है

अब भी कहीं बांकी है
छुपा किसी संदूक में बंद
वो वसन्त
जो खुली आँखों के
सपनों में गुजरा था
किसी कापी में बंधी हुई
वो गुलाब की खुशबू
रह रह कर खट खटती है
कभी किवाड़ कभी खिड़कियाँ
वो अधलिखी चिट्ठी
मुँह चीढ़ाती है
चेहरे बनती है
किसी रुमाल से लिपटी यादें
थोडा गुदगुदाती हैं
टूटी हुई वो पुरानी पायल
आँखों में सावन भर जाती हैं
वो सावन
जो भीगी पलकों में गुज़ारा था
वो सावन
अब भी किसी संदूक में बंद है

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