Sunday, July 03, 2011

...उस सिरहाने से

वो वक़्त मेरे सिरहाने पे कैद है
की सर रखता हूँ,और लौट जाता हूँ
तेरे तस्सवुर में

तेरे साये से सिला अब भी मेरा वजूद है
की उलझ जाता हूँ मैं छोर ढूंढते
छोरे मिलते भी हैं , अगर
तो मैं नहीं मिलता

शामिल हूँ हज़ारों में ,मगर फिर भी तनहा हूँ
माजी का समंदर मुझे मिलने नहीं देता

कहीं तो बांकी है कशिश जो जीने नहीं देती
और वक़्त का आकिल ,मरने नहीं देता

हर सजदे में की दुआ मैंने
कि तुझको भूल पाऊं मैं
इबादत को झुकाया सर तो तुझको हर तरफ पाया
खुदा का तो बस तखल्लुस था
हर आयत तुझ से हामिल थी
दीवानगी ने मेरा मजहब मिटा दिया
मस्जिद से तखल होकर सड़कों पर आ गया
तुझको भूलने कि जुस्त ने मुझे काफिर बना दिया

अब मैं कहाँ जाऊं तुझ से पेश्तर ,खुद को ढूँढने के बहाने से
तुझ से है मेरा वजूद,है कुछ इस तरह सिया
उस सिरहाने से

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