Thursday, June 30, 2011

...और इंतज़ार बस इंतज़ार ...

उम्मीद का अंचल गहरा है ,
किसी मर्तबान सा
जिसमे चीनी नमक से लिपटी खाव्हिशों का
आचार बनता है
थोड़ी से खुशबू उठती है फरेब से भीगी सी
और मुँह में लार का उफान उठता है
मन मचल जाता है ,सोडे में उठे उफान सा
जो बुलबुलों में ही बह जाएगा
वक्त थम जाता है
ग्लेशिअर की मुज़मिद रफ़्तार सा
जो है क़दमों पर रुका हुआ
पर सतह के नीचे बहा ही चला जा रहा है
और इंतज़ार
बस इंतज़ार
कुनैन की गोली सा गले से नीचे नहीं उतरता

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