Saturday, April 09, 2011

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शीशे के मर्तबान में
अपने जख्मी वजूद के
सांसों की घुटन में जल कर भी मैं
राख नहीं हो पाया
अक्स मेरा हँसता मुझ पर
...,देता लानते
जिल्लत भर
ऑंखें मैं लहू उतरा लेकिन मैं
फिर भी नहीं रो पाया
हर करवट पर मायूसी थी
धरकन लगती बेज़ार थी
नाम पलकें मेरी भरी थी
मैं फिर भी नहीं सो पाया
लम्हा बदला ,तरीकें बदली
बादल सागर बदले
एक उम्र हुए दुआ करते
मैं फिर भी नहीं हो पाया

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