Thursday, April 14, 2011

...तुम

यूंही कभी किसी रोज तो तुम लौट के आओगे,
वो टूटी शाख,वो सूखे पत्ते अपने हाथों से हटाओगे ii
थोड़ी से नम तो होंगी ही ऑंखें,
कुर्ते की आस्तीन से पोछ के उनको मुस्कुराओगे ii
उठेंगे कई सवाल जेहन में तूफ़ान बनकर,
यादें बिजली बन कर के कोंधेंगी,
शोर में सिसकते सूखे पतों के,
तुम खुद को तब भी तन्हा पाओगे ii
खुद से पूछोगे तुम कि वक्त की तबियत क्या है ?
सूरज की रोशनी में भी जब अधेरों से तुम टकराओगे ,
अपने साये को भी तुम लानत दोगे ,
जब जुगनूं से भी तुम घबराओगे ii
दोनों हाथों मैं अपने जज़्बात तुम समेट लोगे ,
भिंची मुठिओं का पहरा कड़ा होगे,
फिर भी किसी कोने मैं कहीं छुपके,
सहमा सा दिल तुम्हारा खड़ा होगा ii
मैं जनता हूँ कि ,
तब तुमको मेरे याद आयेगी ,
किसी अजनबी की तरह वो दर तुम्हारा खट - खटाएगी,
मुहँ फेर लोगे तुम और पलट जाओगे,
फिर भी मेरा नाम होंठों पे नहीं लाओगे ii

No comments:

Post a Comment