Tuesday, March 15, 2011

कल ...३

सारी रात बैठ कर हम सितारे सी रहे थे
कश दर कश ज़िन्दगी जी रहे थे
थोडा सुरूर अपने होंसलों का था
न जाने खाली बोतलों से क्या पी रहे थे
हंसते हुआ कहा था उसने अब मैं चाँद तोड़े लूँगा
चाहे हो कुछ भी अब मैं नहीं रुकुंगा
सुन कर के मैं जरा सा मुस्कुराया था
लड्खाते कदम से उसको गले लगाया था
आंखे थी उसकी नम वक्त जो था कम
सुबह उसे थी दूर ले जाने को हो चली
लगता था रूह से जुड़ गए थी उससे शहर की हर गली
कंधे पे मेरे रख कर सर सारा गुबार बह गया
बस पान का वो दाग मेरे कुरते पे रह गया

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