चलो फिर से धूप पर एक कविता लिखते हैं
और
फिर से
अपना दिल बहलाते हैं
फिर से सुबह के रंगों को नज़म बना कर
सूरज के जलाल के कसीदे पढ़ते हैं
और दिन को एक झूठी उम्मीद से हामिल करते हैं
फिर से पलकों पर मुगालतों की पालकियाँ सजाते हैं
और यकीन दिलाते हैं खुद को
एक झूठा यकीन
की जो पूरब से निकला है वो इमान का सूरज है
और
भूल जाते हैं उस रात को
जिसने तब संभाला था
जब दिन पराया हो चला था
और शाम सूदखोर पठान की तरह चौथ वसूलती थी
जिस रात ने
पलको को ख्बाव सजाना सिखाया
उस रात को भूल जाते हैं
ख्वाब जिंदगी तो नहीं होते
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