Saturday, July 05, 2014

जब भी बंद करता हूँ अपनी ऑंखें

जब भी
बंद करता हूँ अपनी ऑंखें
मुझे
धूप नज़र आती है
कभी मंज़िलें बयां करती है
कभी राह खुद बन जाती है
धीरे से पिघल कर
मेरी रूह में पसर जाती है
जब भी
बंद करता हूँ अपनी ऑंखें
मुझे
धूप नज़र आती है

कभी हमनफ़ज़
कभी सांस वो बन जाती
कभी तरन्नुम
कभी साज़ वो बन जाती है
धीरे से पिघल कर
मेरी रूह में पसर जाती है
जब भी
बंद करता हूँ अपनी ऑंखें
मुझे
धूप नज़र आती है

कभी जुबां
कभी अलफ़ाज़ वो बन जाती है
कभी नज़म
कभी नमाज़ वो बन जाती है
धीरे से पिघल कर
मेरी रूह में पसर जाती है
जब भी
बंद करता हूँ अपनी ऑंखें
मुझे
धूप नज़र आती है

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