Sunday, October 27, 2013

जब भी कभी तेरा ज़िक्र उठता है

जब भी कभी तेरा ज़िक्र उठता है 
आँखें भर ही जाती हैं 
जैसे कोई घुमड़ता बादल पलकों पर उतर आया हो 
साँसें 
थमने लगती हैं 
नब्ज़ 
जमने लगती है 
एक टीस सी उठती है 
रूह के मर्तबान में 
वो दर्द
न जाने क्यूँ नहीं मिटता 
कई बार रंगों- रोगन किये है मैंने दरो-दीवार

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