जब भी कभी तेरा ज़िक्र उठता है
आँखें भर ही जाती हैं
जैसे कोई घुमड़ता बादल पलकों पर उतर आया हो
साँसें
थमने लगती हैं
नब्ज़
जमने लगती है
एक टीस सी उठती है
रूह के मर्तबान में
वो दर्द
न जाने क्यूँ नहीं मिटता
कई बार रंगों- रोगन किये है मैंने दरो-दीवार
आँखें भर ही जाती हैं
जैसे कोई घुमड़ता बादल पलकों पर उतर आया हो
साँसें
थमने लगती हैं
नब्ज़
जमने लगती है
एक टीस सी उठती है
रूह के मर्तबान में
वो दर्द
न जाने क्यूँ नहीं मिटता
कई बार रंगों- रोगन किये है मैंने दरो-दीवार
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