कितना कुछ समेटा है
भीतर
खट्टा,मीठा,तीता
जो रह रह कर
हलक में अटक-अटक जाता है
कभी गुदगुदाता है
कभी खिलखिलाता है
कभी धड़कन बढ़ता है
कभी त्योरियां चढ़ाता है
कभी गला रुन्धता है
कभी आसूँ बहता है
आघे बड़े कदम उनको पीछे खींच लाता है
परछाइयों से खुद को बंधा-बंधा सा पाता है
ऐसा कुछ उलझता है की वक्त निगल जाता है
इस कोशिश में, आंखिर, बांकी क्या रह जाता है
उलझे जज्बातों में, ना जाने क्या कर जाओगे
वक्त निभाएगा तुमको ,तुम भी वक्त निभाओगे
न खुदा मिलेगा तुमको , न खुद को ही पाओगे
यादों को, जज्बातों को, बस पीछे ही रहने दो
खुद को ज़ुदा करो खुद से, वक्त में खुद बहने दो
रहने दो,
बहने दो
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