तुम
अब भी
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो
बहुत मुश्किल से नींद आती है
मुझे
जब आती है
तुम सताती क्यों हो
तुम
अब भी
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो
तुम
बढ़ गयी आगे
मेरा साथ छोड़ कर
संग बहती हवाओं के
जज्बात मोड़ कर
पर
मैं
अब भी
वँही खड़ा हूँ
तेरी यादों से जड़ा हूँ
बंधा हुआ
तेरी कसमों के डोर से
सांस भी लेता नहीं
अब मैं जोर से
कहीं
ये डोर टूट न जाये
सैलाब जूनून का
छूट न जाये
तुमने बाँधा है मुझे इन लकीरों में
फिर सपनों में मेरे आकर
इन लकीरों को मिटाती क्यूँ हो
तुम
अब भी
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो
बर्फ थी
पिघल गयी
और बह गया पानी
जो सूखा
तो पीछे रह गयी
सिर्फ कहानी
किरदार मैं , किरदार तुम
फिर कहाँ ...जज्बात
जो हो गए हैं गुम
अब तो पर्दा गिर गया है
रंगमंच ख़ाली है
फिर से
वो जज़्बात जगाती क्यूँ हो
तुम
अब भी
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो
wow..amazing as always..a perennial question.wish dreams could be guided
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