Sunday, November 18, 2012

तुम अब भी मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो



तुम 
अब भी 
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो 
बहुत मुश्किल से नींद आती है
मुझे 
जब आती है 
तुम सताती क्यों हो 
तुम 
अब भी 
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो 

तुम 
बढ़ गयी आगे  
मेरा साथ छोड़ कर 
संग बहती हवाओं के 
जज्बात मोड़ कर 
पर 
मैं 
अब भी 
वँही खड़ा हूँ 
तेरी यादों से जड़ा हूँ 
बंधा हुआ 
तेरी कसमों के डोर से 
सांस भी लेता नहीं 
अब मैं जोर से 
कहीं 
ये डोर टूट  जाये 
सैलाब जूनून का 
छूट  जाये 


तुमने बाँधा है मुझे इन लकीरों में 
फिर सपनों में मेरे आकर 
इन लकीरों को मिटाती क्यूँ हो 
तुम 
अब भी 
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो 


बर्फ थी 
पिघल गयी 
और बह गया पानी 
जो सूखा  
तो पीछे रह गयी 
सिर्फ कहानी 
किरदार मैं , किरदार तुम 
फिर कहाँ ...जज्बात 
जो हो गए हैं गुम 
अब तो पर्दा गिर गया है 
रंगमंच ख़ाली है 
फिर से
वो जज़्बात जगाती क्यूँ हो 
तुम 
अब भी 
मेरे ख्वाबों में आती क्यों हो 

1 comment:

  1. wow..amazing as always..a perennial question.wish dreams could be guided

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