मुन्जमिद जज्बातों से
सपने सील जाते हैं
और खलिश
बन कर फफूंद फ़ैल जाती है
बेबसी की हरारत
तोडती है हौसला
और बन कर मर्ज़ वो
हर पल सताती है
मनहूसियत का दौर वो
होता है कुछ ऐसा
न दुआ, न ही दावा
तब काम आती है
खोल दो
पुश्ते हिचक के
बहने दो सारी गर्दिशें
हैं अन्धेरें के सबब जो
खिश्त वो किस काम के
जिन से उजाले हैं दफन
वो हैं मकां बस नाम के
रह कर ऐसे खंडहरों में
और क्या तुम पाओगे
सुलगते रहोगे कुफ्र में
बन राख भी ना पाओगे
उजाला ठहर जाने दो
अपने दर्मयाँ
रोशनी रूह में उतर जायगी
धूप से विसाल होगा
नूर बन कर बिखर जाएगी
रवानी फिर से लौटेगी
जज्बातों की मौजों में
और यही जिंदगी
रंगों से निखर जाएगी
ban raakh bhi na paogey..beautifully expressed , skand
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