Wednesday, September 12, 2012

मैं जानता हूँ


मैं जानता हूँ
तुम 
कुछ ना कहोगे 
तब चुप रहे थे 
और 
अब चुप रहोगे 
वैसे 
कहना भी क्या है 
बांकी क्या रह गया 
चुप रह कर 
तुमने 
सब कुछ तो है कह दिया 

ये ख़ामोशी
जितनी गहरी है 
उतनी ही 
धार पर ठहरी है 
लफ्ज़ फिसल जो जायेंगे 
कई तूफ़ान आएंगे 
कुछ तेरे भ्रम भी टूटेंगे 
कुछ मेरे सपने बह जायेंगे 

वक्त भी कितन शातिर है 
जो तेरे दर पर ले आया 
तुझ से छीना तेरा सूरज 
मुझ से छीनी मेरी छाया 
हालातों ने, जज्बातों ने 
कुछ ऐसा वहम जगाया 
जितनी कोशिश की बह जाऊँ 
उतना ही तुझ से उलझाया 
अब ऐसा हूँ कुछ मिल गया 
लगता हूँ तुझ से सिल गया 

अब तू थामे 
या बहने दे 
या मुझको बीच में रहने दे 
अब कुछ भी हो चाहे 
है 
मुझको मंज़ूर 
शायद तेरी परश्तिश का 
ये ही है दस्तूर

No comments:

Post a Comment