कभी ये फिराक -ए- दिन भी तो बीते
और विसाल की कोई रात हो
जब तेरे मेरे दरमियाँ , मेरे रहबर
नहीं फासलों सी कोई बात हो
तुम हो , मैं हूँ और हो ख़ामोशी
नज़रों ही नज़रों में बात हो
तुम कुछ कहो , और कुछ कहूँ मैं
थोड़ी ही सही, पर शुरुवात हो
चंदा और तारों की हो सरपरस्ती
और हाथों में तेरे, मेरे हाथ हो
तेरे लम्स से बस पिघल ही मैं जाऊं
इनायत कुछ ऐसी मेरे साथ हो
सजदा करूँ तुझको, हो तस्लीम रोज़े
परस्तिश की ऐसी वो सौगात हो
क़दमों पर तेरे मिले मुझको शह और
काँधों पर तेरे मेरी मात हो
कभी ये फिराक -ए- दिन भी तो बीते
और विसाल की कोई रात हो
वाह..........
ReplyDeleteबेहतरीन अशआर..........
अनु