Monday, May 07, 2012

पानी से लिखी इबारत


जब 
होते नहीं हो 
तुम करीब 
कुछ अच्छा नहीं लगता 
उलझे - उलझे जज़्बात 
मेरे साथ चलते हैं 
कुछ सूझता नहीं 
समझ नहीं आता 
बस हथेली पर 
मेरे 
एहसास पिघलते हैं 

ना 
सुबह जागती है 
ना 
रात सोती है 
अंधेरों सी पोपली  
उजाले की जात होती है 
सपने 
कहाँ बोऊँ
बंजर है खाली मन 
उफनता किनारे तोड़ कर 
बस ये सूनापन 

सीलन सी बढ़ रही है 
मर्म की दीवार पर 
तंज़ 
कभी रिस कर 
यूँ ही बह भी जाता है 
और रह जाती है बाँकी
पानी से लिखी इबारत 
जो तुम 
लिख तो गए 
मगर 
मैं पढ़ न सका 

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