Friday, February 17, 2012

खिडकियों के परदे हटाओ


खिडकियों के परदे हटाओ,थोड़ी सी धूप अंदर आने दो 
जो बहार चमकता है सूरज ,उसे भीतर भी मुस्कुराने दो 
धीरे धीरे उसकी तपिश तेरे जब दिल में उतर जाएगी 
तब कहीं जाकर के जमी वो मायूसी पिघलने पायेगी 

कब तक यूँ ही सिमटे से रहोगे अपने वजूद में तुम 
वक्त ही कितना लगता है होने में किसी को गुम्म  
जो तुम खुद में खो जाओगे कितना मुश्किल हो जायेगा 
चाहे कर ले कोई लाख जाता वो तुम को ढूंढ पायेगा 

ना पीर कोई, ना पैगम्बर, ना ही कोई मसीहा आयेगा 
जज्बातों के इस दलदल से जो तुमको बाहर लायेगा 
जब तक है पानी सर से नीचे कोशिश करना जरूरी है 
खुद को तुम सूली पर टांगो आँखिर ये कैसी मजबूरी है 

अब तुम कितने स्वांग रचोगे , गढ़ोगे कितने और बहाने 
खुशियों की छोटी सी डिबिया जब रक्खी है तेरे सिरहाने 
थोड़े से रंग उस डिबिया से लेकर तुम आँखों में भर लो  
जो सारे खाव्ब हैं थोड़े मुश्किल, तुम कुछ तो पूरे कर लो 

वक्त गुजरते, ना देर लगेगी, और अभी अँधेरा छाएगा 
क्या मतलब है की तब जा कर के कोई कहीं पछतायेगा 
भर लो अपनी झोली में धूप, और जरा सा मुस्कुराओ 
चलो उठो अब जाकर के तुम खिड़कीयों के परदे हटाओ 

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