Sunday, February 05, 2012

प्यार


ढाई आखर है, रंग हज़ार 
कितना विलक्षण है ये प्यार 
बांध सके जो कभी किसी को 
ये ऐसी है कोई डोर नहीं 
कोशिश चाहे कर को जितना 
चलता है किसी का जोर नहीं 
चाहे कितना पीछा कर लो 
ये हाथ कभी आता है 
कभी यूँ ही चलते चलते ही 
बस रस्ते में मिल जाता है 
जितना चाहो इसे समझना 
ये उतना ही उलझता है 
कभी यूँ ही उलझे उलझे ही 
ये मंजिल की राह दिखता है 
कसी जो मुट्ठी बंद अगर जो 
हाथों से फिसल ही जाता है 
खुली बाहें फैला कर देखो 
ये साथ हमेशा आता है 

कितने है इसके देखे रूप 
है कहीं बिखरता बन कर धुप  
जेठ की लू बन कर के ये
तन मन कभी जलाता है 
कभी पतझड़ के सूखे पत्तों सा 
चिंगारी से जल जाता है 
कहीं बदली बन कर छाता है 
घनघोर घटा बरसता है 
कहीं बर्फ के कच्चे फाहों सा 
छूते ही पिघल ये जाता है 
कही सदियों सदियों तक ठहरे   
ये पाले सा जम जाता है 

कभी गहरा सन्नाटा है 
जो काटने को आता है 
कभी संगीत है, कभी शोर है 
कभी सांझ है, कभी भोर है 
कभी भूख है, कभी प्यास है 
कभी उम्मीद है, कभी आस है 
कभी दूर है , कभी पास है 
कभी बस यू ही एहसास है 
कभी हवा कभी ये पानी है 
बस एक छोटी सी कहानी है 
जो जानी पहचानी है 
फिर भी तुमको सुनानी है 
जिसके है संस्करण हज़ार 
पर प्रसंग वही है  - प्यार 

1 comment:

  1. प्यार को जितना भी व्याख्यायित कर लो...फिर भी कुछ है जो छूट जाता है परिभाषित होने से.

    ReplyDelete