चुप्पी, जब तू, ओढ़ती है
मेरी साँसें तोड़ती है
ख़ामोशी को गले लगाकर
सन्नाटों को साखी बनाकार
तन्हा मुझको, छोडती है
चुप्पी जब, तू ओढ़ती है
चुप्पी, जब तू , ओढ़ती है
कितने सवाल ,छोडती है
मौन का निर्मम जाल बन कर
हर पल को चिरकाल बना कर
निशब्द, निरुत्तर, छोडती है
चुप्पी जब, तू ओढ़ती है
चुप्पी, जब तू, ओढ़ती है
मायूसी की तरफ मोड़ती है
दिन के सारे रंग चुरा कर
उमीदों का संग छुड़ा कर
बेबस ,रेंगता छोडती है
चुप्पी जब, तू ओढ़ती है
चुप्पी, जब तू , ओढ़ती है
हर धड़कन, दर्द जोड़ती है
तिनका तिनका, मुझको जला कर
कतरा कतरा, राख उड़ा कर
अस्तित्वहीन, छोडती है
चुप्पी जब, तू ओढ़ती है
बहुत ही उम्दा रचना है स्कन्द ..
ReplyDelete