मानव था
मैं जन्मा
बिन गूढ़ कोई , बिन ज्ञान
सच उन वर्षों में था
जीवन कितना आसान
ना सोच थी कोई
ना कोई समझ थी
ना कोई पहचान
प्यार से जो भी मिलता
लगता एक सामान
मैं जन्मा
बिन गूढ़ कोई , बिन ज्ञान
सच उन वर्षों में था
जीवन कितना आसान
ना सोच थी कोई
ना कोई समझ थी
ना कोई पहचान
प्यार से जो भी मिलता
लगता एक सामान
देकर मुझको तुमने नाम
कैसा आंखिर किया ये काम
कि मानव को मुझ से काट दिया
हिन्दू - मुस्लिम में बाँट दिया
मंदिर - गिरजों में छाँट दिया
फैंके रीत -रिवाज के जाल
चली जात - पात की चाल
अपने रंग में रंगने को
उड़ाई धर्म की खाल
जीवन से प्रेम सिखलाया
मृत्यु का भय दिखलाया
नियति को कारक मान
सोच - तर्क को पिघलाया
भूत गढ़े, भगवन गढ़े
कर्म- कांड के पाठ पढ़े
पाप- पुण्य का स्वांग रचा
किया वही जो तुम्हें जांचा
जीवन के रंग दिखाये
जीने के ढंग सिखाये
पर तुम न समझ ये पाए
की साँसों पर पहरे बिठाये
कोई जान कहाँ से लाये
नहीं चाहिए नाम तुम्हारा
पहचान ये अपनी रहने दो
बस बन कर के इंसान मुझे
उन्मुक्त हवा सा बहने दो
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