Friday, December 23, 2011

और तुम उन्मुक्त हवा की बात करते हो


लोग कहतें है ,
दुनिया बदल रही है 
धरती की सिरों पर जमीं बर्फ पिघल रही है 
लोग कहतें हैं 
दुनिया बदल रही है 

सूरज की तपिश बढ़ी है 
बाँझ हुए हैं बादल 
सौतेले पानी को ढ़ोते
घुमड़ रहें हैं पागल 

जाने किसको धोखा देने 
निकल पड़ें हैं घर से 
आँखे फाड़े सब देख रहें है 
अब बरसे , तब बरसे

जब बरसे, ऐसे बरसे 
वो भटके बदल तूफानी 
सब कुछ समेट कर ले गया 
धरती पर बहता पानी 

रोके कौन अब रूद्र इंद्र को 
धरा भी निस्वास्त्र खाड़ी है 
उसका चीर हरने वालो को 
अब किसकी फ़िक्र पड़ी है 

उनकी आँखों में सुरमा बनकर 
कालिक कहती है कहानी 
वो पोछ रहें हैं सबके आसूँ
जिनका सूख गया है आँख का पानी
स्वार्थ सर्वोपरी है 
और सब कुछ गिरवी है 
धरा , आकाश , पानी 
आने वाली नस्लें 
बीती हुए कहानी 
और तुम 
उन्मुक्त  हवा की बात करते हो 

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