तेरी परछाई से मैं उलझा
क्योँ ढूंढता हूँ खुद को रात दिन
जब ये जानता हूँ मैं
कि अब मुझे जीना है तेरे बिन
तू बन कर ख्याल कब तक मेरे होने पर छाएगी
बन कर के आसूँ कब तक मेरी ऑंखें भिगाएगी
तू गैर है, फिर क्यूँ मेरे सपनों में आयेगी
यूँ दर्द का एहसास बन कर क्योँ सताएगी
जब वफ़ा को तूने जालिम क़त्ल कर डाला
बेवफाई इतनी शिद्दत से क्योँ तू निभाएगी
आंखिर यूँ कब तक मैं इस राह पर चलूँगा
क़यामत के दिन भी मैं जब तुझसे न मिलूँगा
अब तो उतर आया है मेरी आँखों में अँधेरा
हूँ खुद से रिहा मैं, तो मिले नया सवेरा
lovely poem..!!
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