Saturday, November 26, 2011

शीशे में वो खुदा था ...

शीशे में वो खुदा था ...
कुछ मुझ सा लग रहा
जज्बातों की लौ में मेरी
था कुछ सुलग रहा
गुमसुम वो बड़ा था
तमाच जो जड़ा था
हालत ने कुछ ऐसा
मेरे गाल पर

दर्द पीकर, होंठ भींचे
लेटा था घास पर वो
खुले असमान के नीचे
थी नज़र फलक पर
सितरों की चाल पर
अफ़सोस कर रहा था , शायद
वो मेरे हाल पर

कुछ जोड़ता -घटता
फिर खुद ही वो मिटाता
खींचता था जो लकीरें
वो माथे की खाल पर

जिद पर वो अड़ा
मेरे साथ वो खड़ा था
तख्दीर से लड़ा था
वो टेडी चाल पर

वो
मैं खुद था
या खुदा था
मैं जानता नहीं
जो भी था
पराया
उसे मैं मानता नहीं

मेरे जज्बातों की लौ में
है वो भी सुलग रहा
शीशे में वो खुदा था ...
कुछ मुझ सा लग रहा

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