Monday, November 21, 2011

गांठें उलझनों की उँगलियों से नहीं खुलती

गांठें उलझनों की उँगलियों से नहीं खुलती
इन्हें वक्त ही सुलझाएग
अब देखना है तेरे हिस्से
कितना है , कितना आयेगा
अगर इन्तेजार करोगे की अँधेरा करवट बदले 
उजाला यूँ ही सताएगा
न दरवाजे पर दस्तक देगा
न गली में तेरी आएगा
और अगर तुम ठान लो
अँधेरे को साथी मान लो
यही अँधेरे तेरे अंचल में नया सवेरा लायेगा
जिसमें सूरज तेरा होगा
जो प्रकाश फैलाएगा
तेरे रोशन होने से ही
तुम मनो ना मनो ये
सब कुछ बदल पायेगा

No comments:

Post a Comment