Friday, November 18, 2011

शायद अब मैं यहाँ आऊंगा नहीं

शायद अब मैं यहाँ नहीं आऊंगा

थोड़ी मुश्किल तो होगी मगर

कुछ दिनों तक तो 
सही वादा ये निभाऊंगा

मुझे महसूस होता है कि मैं खिड़की पर खड़ा हूँ 

जहाँ से मैं तुझको देख सकूं 

जब तुम पर्दा हटती हो तो धुप निकल जाती है 

फिर गिरती हो पर्दा तो रोशनी पिघल जाती है 

जब साये गहरातें तो सोचता हूँ अक्सर

कि जब तुम को मेरी दरकार नहीं तो 

फिर यहाँ मैं क्योँ खड़ा हूँ 

लौटने कि कोशिश बहुत की है  

फिर भी न जाने क्यों जड़ा हूँ 

कभी कभी लगता है बस की अब और नहीं

पर उम्मीद कि भी कोई ठौर नहीं 

लगता है कि फिर से तू पर्दा हटाएगी 

और रोशनी मुझको निगल जाएगी

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