चुप सी थी
खुद में ही सिमटी
रोशनी लपेटे
मतवस्त ....
अपने नूर से वो
चारों दिशाएं लांघती
बेपरवाह...
अपनी जादूगरी से
देहान सारा बंधती
नजाकत
के सलीकों को
नए आयाम देती वो
तरन्नुम
के उसूलों को
नए से नाम देती वो
खामोश
नज़रों से
कोई दास्ताँ कहती वो
फिर भी
जुदा जुदा
खुद से ही रहती वो
छलकती रोशनी थी वो
आँच के बगैर
बहुत खूबसूरत हैं
चांदनी के पैर
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