जो चाँद मेरी खिड़की पर खड़ा है ,वो तेरे आसमान पर जाड़ा है
फिर भी तेरे मेरे दरमयां क्योँ फासला बड़ा है
मेरे रोज़ों की चमक में तेरी आज़नो का नूर है
फिर भी न जाने तू क्यूँ मुझ से दूर है
तेरे आँगन में पकती खीर की महक मुझको भी आती है
मगर फीकी से पड़ कर वो फिर क्योँ सताती है
तेरे झूलों की पींगों से हवाएं उठती तो है अरमान सी
न जाने कौन सी सरहद है जो कर दे उन्हें सुनसान सी
तू ही बता दे ये मुझे , की यूँ कब तक रहेंगे अनजान से
क्योँ मिल नहीं सकते है हम खुद को पहचान के
उठा हाथ , चल मांगें दुआ , हम हो एक दूजे के मुरीद
जो हो क़ुबूल , तो हर रोज हम मनाएं ईद
Beautiful thought !! Amen .
ReplyDeleteBeautiful...soulful..and thoughtful too...Amen
ReplyDeleteso beautifully expressed, we are the same and yet distances seem unassailable ..wish one day we have no borders in our minds
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