Monday, June 13, 2011

मूंगऔडीयों की याद मैं

वो छत पर शाम तक बैठ रहा
मूंगऔडीयों की याद मैं
जो इजा जड़ों मैं बनती थी
तेज धुप मैं , नीले असमान के नीचे
तपती टीन पर वो नंगे पैर खड़ा
बचपन की गर्मी को सोखते रहा
कभी पत्थर उठता फिर फैंक देता
कहीं भी कोइ कव्वा नहीं था
ना बड़ी , ना पापड़
सोचा अब मतलबी कव्वे क्यूँ आएँगे
साले जरूर जाकर किसे का साबुन चुरायेंगे

उसके यादों मैं एक भी सलवट नहीं थी
पर सब कुछ सफ़ेद था
शायद कहीं उसके कल में कोई छेद था
वो खुद को टटोलता रहा
हाथ हिलाता रहा
आवारा डोइ लंगूरों को बुलाता रहा
फिर सोचता रहा
लंगूर अब क्यूँ आएंगे
साले जरूर जाकर किसे का जूठा खाएंगे

छत पर खड़े खड़े शाम हो गयी
खुद से मिलने की हसरत तमाम हो गयी
फिर सोचने लगा
जब ईजा बुलाती थी
में भी कहाँ जाता था
कब छत में खडा होकर मूंगऔडी सूखता था
लंगूरों सा आवारा
छतो छतों पर कूदता यूँ ही गुम हो जाता था
कव्वे खाते बड़ी - मूंगऔडी
और मैं गाली खाता था
साला में भी इजा को
आँखिर कितना सताता था

1 comment:

  1. simple and beautiful............takes you down the memory lane.......

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