Tuesday, April 19, 2011

ओस की बूंदों का भी एक समंदर होता है

ओस की बूंदों का भी एक समंदर होता है
जो बिखरे जज्बात के अक्स के अन्दर होता है
उठती है उसमें खामोश लहरें ,जो साहिल से भी नहीं हैं टकराती
मगर साथ लेकर रेत के कतरे, कहीं गहराईयों मैं हैं लौट जाती
उसमे बड़े सीधे से भवंर होते हैं , जो उलझते हैं रेशम की तरह
एहसास होने को नहीं होता , ढूंढो तो, सिरे नहीं मिलते
हवाएँ तेज चलती हैं बड़े तूफान आते हैं
कच्चे दायरे को ओस के नहीं वो तोड़ पते हैं
अक्स दर्द को जाहिर न करे मगर अन्दर होता है
ओस की बूंदों का भी एक समंदर होता है

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