ओस की बूंदों का भी एक समंदर होता है
जो बिखरे जज्बात के अक्स के अन्दर होता है
उठती है उसमें खामोश लहरें ,जो साहिल से भी नहीं हैं टकराती
मगर साथ लेकर रेत के कतरे, कहीं गहराईयों मैं हैं लौट जाती
उसमे बड़े सीधे से भवंर होते हैं , जो उलझते हैं रेशम की तरह
एहसास होने को नहीं होता , ढूंढो तो, सिरे नहीं मिलते
हवाएँ तेज चलती हैं बड़े तूफान आते हैं
कच्चे दायरे को ओस के नहीं वो तोड़ पते हैं
अक्स दर्द को जाहिर न करे मगर अन्दर होता है
ओस की बूंदों का भी एक समंदर होता है
nice work-wish you a great success!
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