Tuesday, August 16, 2011

...वो होलियारों की टोली


पयो के धाँग को कंधे पर लादे
वो होलियारों की टोली
ढोल की थप पर
मंजीरों के खनक पर
थिरकती
नारायण नगर से पिटरिया की चढ़ाई चढ़ती है
उनके माथे से पिघला पसीना
चेहरे पर लकीरे कुरेदता
कंधो पर उठाये उल्लास में मिल रहा है
और धौकनी सी चलती साँसें
यमुना से जल भरने पर परामर्श कर रही हैं
" ठाड़े भरूं रजा राम देखत है
बैठे भरू भीजे चुनरी
जल कैसे भरूं यमुना गहरी ..."
चढ़ाई सीधी है ,पर निश्च्च्य प्रबल
सूरज ढलने से पहले मोहल्ले में
चीर का पेड़ लगाना है
सब से बड़ा चीड का पेड़ , शायद उन हौसलों से भी बड़ा
जो इन नन्हे पैरों को बहा रहा है
रास्ता लम्बा है , और कड़ी धुप है
मगर समय कम है
होली के रंग शाम चार बजे पढेंगे
और शायद दो बजने को हैं
कंधे छिलते जा रहे हैं
थापें बढाती जा रही हैं
और जीवट छलक सी रही है
" झंकारो झंकारो झंकारो ...
गौरी प्यारो लगे तेरो झंकारो..."
पिटरिया पहुँच कर चढाई खत्म है
थकान जीत में बदल कर चेहरों पर चमक रही है
और बरी बरी कर सभी पानी पी रहें हैं
उस नल से
जहाँ अक्सर बग्गड़ के दूधिये , दूध में पानी मिलतें हैं
" जोगी आयो शहर में व्योपारी.."

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