Saturday, June 25, 2011

बोट हाउस क्लब की मुंडेर से ....

वो बैठा रहा

हमय्श्गी तक

पन्त जी की मूंछों के नीचे

हाथ में मक्का दबाये

कभी उसको दांतों से नोच लेता

कभी ऊँगली से उधेड़ता

उसके जेहन की सलवटे

उसके चेहरे पर उतर आई थी

उसकी जिंदगी पन्त जी के साथ अटक गई थी

शायद

और वक़्त रिक्शों सा चला जा रहा था

क़तर दर क़तर लोग बहते रहे

शाम बिनती रही स्याह दायरा - उफक

वो रहा गुमशुदा

दुनियादारी के भवंर से

क्या वो नाकाम था

या नाउम्मीद

ये तो वो ही जाने

मगर तहज़ीब के इस्तेह्काक को वो नंगा कर गया

किसी ने उसकी बहती नाक पर नाक चढाई

किसी ने उसकी हालत पर हमदर्दी जताई

किसी ने उसके फटे कपडे देखे

किसी ने उसका उधडा बदन

मगर

किसी ने उसको नहीं देखा

1 comment:

  1. This is an extremely wonderful portrayal sir. I am a fan of yours. Love them all.

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